Monday, 31 July 2017

नेताजी बोस और आजाद हिंद फौज के इर्द-गिर्द घूमती है ‘राग देश’










पान सिंह तोमर, साहेब,बीवी और गैंगस्टर जैसी दमदार फिल्मों के जरिए बॉलीवुड में लोहा मनवाने वाले डायरेक्टर, एक्टर और राइटर तिग्मांशु धूलिया अब अपनी नई फिल्म ‘राग देश’ के साथ सिनेमाघरों में दस्तक देने आ रहे हैं। राग देश नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा बनाई आजाद हिंद फौज पर आधारित है जिसमें सिनेमा जगत के मशहूर अभिनेता कुणाल कपूर, मोहित मारवाह और अमित साध मुख्य भूमिका में है। इस फिल्म की कहानी दूसरे विश्व युद्ध के दौरान आजाद हिंद फौज और ब्रिटिश आर्मी के बीच हुई लड़ाई के इर्द-गिर्द घूमती है जिसमें हिंद फौज की हार हुई। ब्रिटिश आर्मी ने जीत के बाद आजाद हिंद फौज के लोगों पर कोर्ट मार्शल किया और आरोप लगाया कि इन्होंने देश के साथ गद्दारी की है। शाहनवाज खान, गुरबक्श सिंह ढिल्लों और प्रेम सहगल पर अंग्रजों ने लाल किले पर कोर्ट मार्शल किया। अपनी इस फिल्म के बारे में बात करने के लिए तिग्माशुं धुलिया, कुणाल कपूर और मोहित मारवाह पंजाब केसरी के कार्यालय पहुंचे जहां उन्होंने फिल्म से जुड़े कई मजेदार और दिलचस्प किस्सों के बारे में बात की।

चैलेंजिंग था यह रोल:कुणाल कपूर

फिल्म में शाहनवाज खान का रोल निभा रहे कुणाल कपूर का कहना है कि शाहनवाज का रोल निभाना काफी चैलेंजिंग था। वह बताते हैं कि उन्होंने शाहनवाज खान ऑटोबायोग्राफी पढ़ी, उनसे जुड़े लोगों से उनके बारे में बात की और खान के बारे में जानने की कोशिश की। इसके लिए मैं शाहनवाज के पौत्र से भी मिला और उनकी कुछ तस्वीरें ली। इस रोल को निभाने के लिए सबसे बड़ी बात थी उस समय की मानसिकता को समझना। उस समय लोग ऐसे थे जो देश के बारे में सबसे पहले सोचते थे और शाहनवाज भी उनमें से ही एक थे।






इस रोल के लिए छोड़ दी सारी आदतें:मोहित मारवाह

मोहित मारवाह इस फिल्म में प्रेम सहगल का किरदार निभा रहे हैं। वह बताते हैं कि जब इस किरदार के बारे में उन्होंने तिग्माशुं धुलिया से बात की तो उन्होंने कहा कि अगर इस रोल को बेहतर तरीके से निभाना चाहते हो तो अपनी सारी बुरी आदतें छोड़ दो। जैसे देर रात बाहर जाना, पार्टी करना आदि। तिग्मांशु के कहने पर यह सारी चीजें छोड़ दी और सिर्फ उन्हीं लोगों के साथ रहा जो इस फिल्म और प्रेम सहगल से जुड़े थे। इसके अलावा मैं जो फिल्में भी देखता था वह भी द्वितीय विश्वयुद्ध से जुड़ी देखता था ताकि उस माहौल के बारे में जान सकूं।

कहां गया ऐ गालिब




                                       न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,
                                       डबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!
कुछ ऐसा था गालिब का अंदाज ए बयां। शेर-ओ-शायरी के रसिया मिजऱ्ा असदुल्लाह खा़ गा़लिब जिन्हें प्यार से मिजऱ्ा नौशा या मिजऱ्ा गालिब के नाम से भी जाना जाता था,महान शायर तो थे ही साथ ही बेहतरीन मिजाज के भी व्यक्ति थे। उनकी शायरी का संग्रह इतना विशाल है कि यदि खंगालना शुरू करें तो शायद खत्म ही न हो। कहते हैं कि एक व्यक्ति में शायर बनने के लिए गम,सुख,दुख और परिस्थितियों का भाव  बेहद मायने रखता है और यह सब गालिब को तोहफे में मिला, तब जाकर मिर्जा गालिब बनें। उनकी पत्नी उमराव बेगम से उन्हें सात बच्चे हुुए लेकिन दुर्भाग्य से कोई भी जीवित नही रह सका जिसका उन्हें बेहद सदमा लगा। आज सभी लोग गालिब का नाम तो जानते हैं लेकिन गालिब के बारे में जानकर भी अंजान हैं। लोग तो शायद इस बात से भी अंजान है कि आज भी राजधानी में गालिब की हवेली को उनकी कुछ यादों के साथ संजो कर रखा गया है। 27 दिसंबर 1797 में आगरा (अकबराबाद) में जन्में गालिब बचपन से ही मोमिन,मीर और जौक से प्रभावित रहे थे। चांदनी चौक के बल्लीमारान में मीर कासिम जान गली में बनी गालिब की हवेली बेशक समय के साथ-साथ छोटी होती जा रही है लेकिन इसमें गालिब के उन साक्ष्यों को संभाल कर रखा गया है जो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव को बयां करते हैं। 500 गज में बनी यह हवेली आज केवल 140 गज में ही सिमट कर रह गई है। चूंकि गालिब को बड़ा स्वाभिमान था और वह अपने आप में आत्मविश्वास रखते थे इसलिए उन्होंने अपने बारे में लिखा कि बेशक दुनिया में बहुत से कवि-शायर हैं, लेकिन उनका लहजा सबसे निराला है:              
                                  ‘‘हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे
                                कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए-बयां और’’

बादशाह भी रहे शागिर्द
अपने जीवनकाल के दौरान गालिब ने अनेक जगहों की यात्रा की और कई शागिर्द बनाए। गालिब घुमक्कड़ किस्म के थे और उन्होंने अपनी यात्रा में कई स्थान देखे। फिरोजपुर, झिरका, भरतपुर, लखनऊ, कानपुर, इलाहबाद, बनारस, पटना, मर्शिदाबाद और कलकत्ता जैसी कई जगहों का वह दौरा कर चुके थे। इसी बीच उन्होंने बड़े-बड़े बादशाहों को भी अपना शागिर्द बनाया। इसमें बहादुरशाह जफर, अल्ताफ हुसैन हाली, मिर्जा दाग देहलवी, नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता और मुंशी हरगोपाल तुफ्ता जैसे लोग उनके शागिर्द के रूप में शामिल हैं।

रो पड़े थे गालिब
Ghalib Ki Haveli At Chandni Chowk.

मिर्जा गालिब ने अपनी आखों से 1857 के युद्ध का वो मंजर देखा था जिसमें कई लोगों ने अपनी जान गवां दी थी। मई-जून का महीना था और दिल्ली वालों के पास पीने के लिए पानी नहीं था। गलियों में सिपाही तलवारें लेकर गश्त करते रहते थे। 134 दिन तक चली इस लड़ाई में लोगों को अपने घरों में कैद होकर रहना पड़ा और कई-कई दिनों तक उन्हें खाना नसीब नही होता था। गालिब ने इन दिनों को अपनी डायरी में कैद किया और इसे दखतंबू का नाम दिया। इस दौरान गालिब के दोस्त और बादशाह बहादुर शाह जफर का भी पतन हो गया था। जब उन्हें लाल किले में बुलाया तो वहां जफर की बजाय कोई गौरी मेम बैठी उनसे सवाल-जवाब कर रही थी। इस सब को देख गालिब बेहद दुखी हुए और रोने लगे।

उमराव बेगम से नोंक-झोंक
गालिब की अपनी पत्नी उमराव बेगम से यह शिकायत रहती है कि वह उनकी शायरी को नहीं समझती। इस बात को लेकर दोनों में नोंक-झोंक होती रहती थी। उमराव बेगम इलाही बख्श मारूफ की पुत्री थी और बल्लीमारान में एक हवेली में उनका निवास था। यह हवेली अब कासिमजान गली में राबिया गल्र्स स्कूल के नाम से चल रही है। जिस समय उनका विवाह मिर्जा गालिब से हुआ उस वक्त वह लगभग बारह वर्ष की और मिर्जा साहब तेरह वर्ष के थे। वैसे तो उमराव बेगम एक निष्ठावान और वफादार पत्नी थी और गालिब का ध्यान भी रखती थी लेकिन उन्हें गालिब की शायरी पसंद नही थी। इनके सात बच्चे हुए लेकिन दुर्भाग्य से कोई भी जीवित न रह सका।

आज भी शायरी बयां करती दीवारें

मिर्जा गालिब की यादें बेशक समय के साथ-साथ धुंधली होती जा रही हैं लेकिन आज भी इनकी हवेली की दीवारे उनकी शायरी को बयां करती हैं। गालिब की हवेली में गालिब की लिखी कई शायरी और नजमें दीवारों पर लिखी गई हैं। न जाने इस हवेली में ऐसा क्या है कि यहां आकर माहौल शायराना हो जाता है। इतना ही नहीं इस हवेली में गालिब और उमराव के कपड़ो केे नमूने, उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तनों के नमूने मौजूद हैं। साथ ही उनका मनपसंद खाना और उनकी आदतों के बारे में भी लिखा गया है। यह सब देख एहसास होता है कि शायर बनना या शायरी कहना कोई बच्चों का खेल नही। 

Sunday, 30 July 2017

तवायफों की जिंदगी के अनछुए पहलुओं को बयां करते चावड़ी बाजार के बंद ‘कोठे’


वायफ...एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही हमारे दिल और दिमाग में एक ऐसी महिला की तस्वीर बन जाती है जो पैरों में घूंघरू बांध, हाथों में कंगन पहन अपने दरवाजे पर आने वाले लोगों का मनोरंजन करती है लेकिन अगर इनकी असल जिंदगी के बारे में जानने की कोशिश की जाए तो वह हमारी सोच से काफी अलग है। मुगलकाल और ब्रिटिश सरकार के दौरान चावड़ी बाजार में बने तवायफों के घरों को ‘कोठा’ शब्द से पुकार जाता था। इन घरों का आकार थोड़ा बड़ा होता था जिसके चलते इन्हें कोठा कहा जाता था लेकिन अगर आज किसी के सामने यह शब्द बोला जाए तो उसकी सोच सीधे वैश्या पर जाकर रूकती है। उस दौरान घरों के आकार के हिसाब से नाम दिया जाता था। बड़ा घर तो कोठा, उससे थोड़ा छोटा तो कोठी और सबसे छोटे घर को कोठरिया कहा जाता था परंतु कोठा तवायफों की पहचान बन गया था। उस समय चावड़ी बाजार कोठों के लिए जाना जाता था। इसकी जानकारी एक वॉक के जरिए गो इन द सिटी के गौरव और अदिति भाटिया ने दी।

फोटो :  श्रीकांत सिंह

बंद कोठे बयां करते हैं हकीकत


चावड़ी बाजार में आज भी कुछ मकान ऐसे हैं जिन्हें पुराने वक्त में कोठा कहा जाता था। चावड़ी बाजार मेट्रो स्टेशन से चावड़ी बाजार जाते वक्त पहला कोठा पड़ता है जो इस बात को बयां करता है कि उस वक्त इन घरों में रहने वाली महिलाओं की क्या स्थिति थी। बेशक उन्हें तवायफ कहा जाता था लेकिन उनकी वफादारी किसी सबूत का मोहताज नहीं थी। जब कोई नवाब इन कोठों पर आया करता था तो वह शराब या किसी अन्य नशे की बजाय पान खाता था जिसमें अफीम मिलाई जाती थी। इससे थोड़ा आगे चलने पर एक और कोठा बना है जो काफी बड़ा है।


तवायफों के लिए बनाई गई अलग मस्जिद


इन कोठों के साथ ही वहां रहने वाली तवायफों के लिए एक अलग मस्जिद बनाई गई थी जिसे ‘रुकनूदोला’ की मस्जिद कहा जाता था। इस मस्जिद में सिर्फ और सिर्फ तवायफें ही सजदा करने आया करती थी। चावड़ी बाजार में बनी यह मस्जिद आज भी उतनी ही चमकदार है जितनी उस समय में हुआ करती थी। रुकनूदोला की मस्जिद की दीवान वहां बने कोठे के बराबर हुआ करती थी। आज भले ही मस्जिद के नीचे दुकानों की वजह से रास्ता तंग हो गया हो लेकिन इसकी खूबसूरती आज भी बरकरार है।


चार वर्गों में बंटी थी यह महिलाएं


मुगलकानी समय में इन महिलाओं को चार वर्गों में बांटा गया था। सबसे पहले वर्ग की महिलाओं के लिए रखैल शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। इनके साथ नवाब अपनी मर्जी से जितना समय चाहें उतना समय रह सकते थे। साथ ही इनके आसपास नवाब के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं आता था। इूसरे वर्ग की महिलाएं तवायफ कहलाती थी जिनका काम था कथक के जरिए उनके दर पर आने वाले लोगों का मनोरंजन करना। तीसरे वर्ग की महिलाओं को दोमनी कहा जाता था जो सिर्फ मुजरा करती थीं और लोगों का मनोरंजन करती थी। इस कड़ी में आखिरी वर्ग था बेड़मी महिलाओं का जिसके साथ कोई भी व्यक्ति पैसों के दम पर शारीरिक संबंध बना सकता था।


मर्द भी हुआ करते थे तवायफ

सुनकर भले ही अजीब लग रहा होगा लेकिन यह हकीकत है कि उस समय मर्द भी तवायफ का काम करते थे। गौरव बताते हैं कि जब नवाब कई-कई दिनों तक इन तवायफों के पास रहा करते थे तो उस समय उनकी महिलाएं घरों में अकेली रहा करती थी और मनोरंजन का कोई साधन नहीं था। इतिहास के पन्ने इस बात का गवाह हैं कि वह महिलाएं अपने मनोरंजन के लिए मर्द तवायफों को बुलाया करती थी। वह भी अपने पैरों में घूंघरू बांधकर नृत्य करते थे और बेगमों का मनोरंजन करते थे।


तवायफों की वफादारी का सबूत है ‘राणादिल’

राणादिल उस समय की सबसे खूबसूरत तवायफों में से एक थी जो अपने नृत्य के जरिए किसी को भी अपने तरफ आकर्षिक कर लेती थी। इस दौरान औरंगजेब के भाई दाराशिकोह को राणादिल से मोहब्बत हो गई थी। राणादिल और दाराशिकोह एक-दूसरे को चाहने लगे और दोनों की शादी हो गई। इसके बाद दाराशिकोह की मृत्यु हो गई और औरंगजेब ने राणादिल को संदेश भेजा की आप बेहद खूबसूरत है और मैं आपको अपने शाही घर में रखना चाहता हूं। इस पर राणादिल ने अपने सिर के बाल काटकर औरंगजेब को भेज दिया। इतने पर भी औरंगजेब नहीं माना और उसने दोबारा संदेश भेजकर उसके चेहरे की तारीफ की और फिर से शाही घर में रहने का न्यौता दिया। दाराशिकोह के प्रति अपनी वफादारी दिखाते हुए राणादिल ने अपने पूरे चेहरे पर चाकू मार लिए और चेहरे से निकले खून और मास के कुछ हिस्से औरंगजेब को भेज दिए। इस पर औरंगजेब भी हैरान हो गया और राणादिल की इज्जत करने लगा।

गुरुद्वारा पंजा साहिब: जहां गुरु नानक देव जी ने पंजे से रोक दी थी चट्टान

पाकिस्तान स्थित गुरुद्वारा पंजा साहिब सिख समुदाय के तीर्थ स्थल देश में ही नहीं, विदेश में भी हैं. यहां जो गुरुद्वारे हैं, उनसे गुरु...