Monday, 31 July 2017

कहां गया ऐ गालिब




                                       न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,
                                       डबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!
कुछ ऐसा था गालिब का अंदाज ए बयां। शेर-ओ-शायरी के रसिया मिजऱ्ा असदुल्लाह खा़ गा़लिब जिन्हें प्यार से मिजऱ्ा नौशा या मिजऱ्ा गालिब के नाम से भी जाना जाता था,महान शायर तो थे ही साथ ही बेहतरीन मिजाज के भी व्यक्ति थे। उनकी शायरी का संग्रह इतना विशाल है कि यदि खंगालना शुरू करें तो शायद खत्म ही न हो। कहते हैं कि एक व्यक्ति में शायर बनने के लिए गम,सुख,दुख और परिस्थितियों का भाव  बेहद मायने रखता है और यह सब गालिब को तोहफे में मिला, तब जाकर मिर्जा गालिब बनें। उनकी पत्नी उमराव बेगम से उन्हें सात बच्चे हुुए लेकिन दुर्भाग्य से कोई भी जीवित नही रह सका जिसका उन्हें बेहद सदमा लगा। आज सभी लोग गालिब का नाम तो जानते हैं लेकिन गालिब के बारे में जानकर भी अंजान हैं। लोग तो शायद इस बात से भी अंजान है कि आज भी राजधानी में गालिब की हवेली को उनकी कुछ यादों के साथ संजो कर रखा गया है। 27 दिसंबर 1797 में आगरा (अकबराबाद) में जन्में गालिब बचपन से ही मोमिन,मीर और जौक से प्रभावित रहे थे। चांदनी चौक के बल्लीमारान में मीर कासिम जान गली में बनी गालिब की हवेली बेशक समय के साथ-साथ छोटी होती जा रही है लेकिन इसमें गालिब के उन साक्ष्यों को संभाल कर रखा गया है जो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव को बयां करते हैं। 500 गज में बनी यह हवेली आज केवल 140 गज में ही सिमट कर रह गई है। चूंकि गालिब को बड़ा स्वाभिमान था और वह अपने आप में आत्मविश्वास रखते थे इसलिए उन्होंने अपने बारे में लिखा कि बेशक दुनिया में बहुत से कवि-शायर हैं, लेकिन उनका लहजा सबसे निराला है:              
                                  ‘‘हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे
                                कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए-बयां और’’

बादशाह भी रहे शागिर्द
अपने जीवनकाल के दौरान गालिब ने अनेक जगहों की यात्रा की और कई शागिर्द बनाए। गालिब घुमक्कड़ किस्म के थे और उन्होंने अपनी यात्रा में कई स्थान देखे। फिरोजपुर, झिरका, भरतपुर, लखनऊ, कानपुर, इलाहबाद, बनारस, पटना, मर्शिदाबाद और कलकत्ता जैसी कई जगहों का वह दौरा कर चुके थे। इसी बीच उन्होंने बड़े-बड़े बादशाहों को भी अपना शागिर्द बनाया। इसमें बहादुरशाह जफर, अल्ताफ हुसैन हाली, मिर्जा दाग देहलवी, नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता और मुंशी हरगोपाल तुफ्ता जैसे लोग उनके शागिर्द के रूप में शामिल हैं।

रो पड़े थे गालिब
Ghalib Ki Haveli At Chandni Chowk.

मिर्जा गालिब ने अपनी आखों से 1857 के युद्ध का वो मंजर देखा था जिसमें कई लोगों ने अपनी जान गवां दी थी। मई-जून का महीना था और दिल्ली वालों के पास पीने के लिए पानी नहीं था। गलियों में सिपाही तलवारें लेकर गश्त करते रहते थे। 134 दिन तक चली इस लड़ाई में लोगों को अपने घरों में कैद होकर रहना पड़ा और कई-कई दिनों तक उन्हें खाना नसीब नही होता था। गालिब ने इन दिनों को अपनी डायरी में कैद किया और इसे दखतंबू का नाम दिया। इस दौरान गालिब के दोस्त और बादशाह बहादुर शाह जफर का भी पतन हो गया था। जब उन्हें लाल किले में बुलाया तो वहां जफर की बजाय कोई गौरी मेम बैठी उनसे सवाल-जवाब कर रही थी। इस सब को देख गालिब बेहद दुखी हुए और रोने लगे।

उमराव बेगम से नोंक-झोंक
गालिब की अपनी पत्नी उमराव बेगम से यह शिकायत रहती है कि वह उनकी शायरी को नहीं समझती। इस बात को लेकर दोनों में नोंक-झोंक होती रहती थी। उमराव बेगम इलाही बख्श मारूफ की पुत्री थी और बल्लीमारान में एक हवेली में उनका निवास था। यह हवेली अब कासिमजान गली में राबिया गल्र्स स्कूल के नाम से चल रही है। जिस समय उनका विवाह मिर्जा गालिब से हुआ उस वक्त वह लगभग बारह वर्ष की और मिर्जा साहब तेरह वर्ष के थे। वैसे तो उमराव बेगम एक निष्ठावान और वफादार पत्नी थी और गालिब का ध्यान भी रखती थी लेकिन उन्हें गालिब की शायरी पसंद नही थी। इनके सात बच्चे हुए लेकिन दुर्भाग्य से कोई भी जीवित न रह सका।

आज भी शायरी बयां करती दीवारें

मिर्जा गालिब की यादें बेशक समय के साथ-साथ धुंधली होती जा रही हैं लेकिन आज भी इनकी हवेली की दीवारे उनकी शायरी को बयां करती हैं। गालिब की हवेली में गालिब की लिखी कई शायरी और नजमें दीवारों पर लिखी गई हैं। न जाने इस हवेली में ऐसा क्या है कि यहां आकर माहौल शायराना हो जाता है। इतना ही नहीं इस हवेली में गालिब और उमराव के कपड़ो केे नमूने, उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तनों के नमूने मौजूद हैं। साथ ही उनका मनपसंद खाना और उनकी आदतों के बारे में भी लिखा गया है। यह सब देख एहसास होता है कि शायर बनना या शायरी कहना कोई बच्चों का खेल नही। 

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