Monday, 23 October 2017

आखिर क्यों नहीं पढ़ाया जाता सारागढ़ी का युद्ध?



इतिहास में बहुत से ऐसे युद्ध हैं जिनका नाम किताबों में दर्ज है। हम और आप इन्हीं युद्धों के बारे में पढ़ते और समझते आए हैं लेकिन इनके अलावा भी कई सारे ऐसे युद्ध हैं जो किताबों में भले ही दर्ज न किए गये हों लेकिन वह अपने आप में ही एक इतिहास हैं। 12 सितंबर 1897 में हुआ सारागढ़ी युद्ध भी एक ऐसे ही युद्ध का नाम है। इसमें 21 सिख सैनिकों ने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अफगान के 12 हजार सैनिकों को घुटने पर लाकर खड़ा कर दिया था लेकिन अफसोस कि आज भारत में इस ऐतिहासिक युद्ध के बारे में न ही बच्चों को पढ़ाया जाता है और न ही उन्हें इसके बारे में बताया जाता है। इस ऐतिहासिक युद्ध में जब सिखों का मनोबल टूटने लगा तो अचानक किसी ओर से ‘जो बोले सो निहाल’ के जयकारे की आवाज आई जिसने सिखों में जोश भर दिया और फिर देखते ही देखते उन्होंने अफगानों को मौत के घाट उतार दिया। आज भले ही इस इतिहास को बच्चों से दूर कर दिया गया हो लेकिन इसकी कहानी आज भी लोगों में जोश और जूनून पर देती है। आइये जानते हैं इस रोचक और ऐतिहासिक युद्ध के बारे में-    

क्यों हुआ था युद्ध                                                          
भारत-अफगान सीमा पर उस समय दो किले हुआ करते थे। गुलिस्तान का किला और लॉकहार्ट का किला। यह दोनों सीमा रेखा के छोरों पर थे। यह सारागढ़ी से सटे हुए थे और यह एक बहुत ही अहम जगह मानी जाती थी। इन किलों की सुरक्षा के लिए विशेष तौर पर 21 सिखों को तैनात किया गया था क्योंकि अंग्रेजों को इन पर पूरा विश्वास था। ब्रिटिश अफगान पर आए दिन हमला करता रहता था जिसके चलते अफगान बेहद नाराज थे और वह भारत में घूसने की फिराक में रहते थे ताकि वह इन किलों पर कब्जा कर सकें। 12 सितंबर 1897 की सुबह सभी सिख सैनिक सोए हुए थे। सूरज की पहली किरण के साथ उनकी आंख खुली, नजारा चौंकाने वाला था। करीब 12 हजार अफगानी सैनिक उनकी ओर तेजी से बढ़ते जा रहे थे। दुश्मन की इतनी बड़ी संख्या देखकर सब हैरान थे। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये। 21 सिख सैनिकों को उन्हें रोकना एक बड़ी चुनौती थी लेकिन उन्होंने निडर होकर उनका सामना किया।



बन गई थी करो या मरो की स्थिति
लॉकहार्ट के किले पर अंग्रेजी अफसर बैठे हुए थे। सिखों ने उन्हें संदेश भेजते हुए बताया कि एक बड़ी संख्या में अफगानियों ने चढ़ाई कर दी है और उन्हें तुरंत मदद की जरूरत है। इस पर अंग्रेजी अफसर का जवाब सिखों के सोचे हुए जवाब से बिल्कुल अलग था। अफसर ने कहा कि इतने कम समय में सेना नहीं भेजी जा सकती है। उन्हें मोर्चा संभालना होगा और सुनते ही सिखों के लिए करो या मरो की स्थिति बन गई थी। वाहेगुरु का नाम लेकर वह अपनी-अपनी जगह पर मजबूती से तैनात हो गये। अफगानी निरंतर आगे बढ़ रहे थे। सारे सिख सैनिक अपनी-अपनी बंदूकें लेकर किले के ऊपरी हिस्से पर खड़े हो गए थे। सन्नाटा हर जगह पसर चुका था। बताते हैं कि सिर्फ अफगानियों के घोड़ों की आवाज सुनाई दे रही थी। थोड़ी ही देर में एक गोली की आवाज के साथ जंग शुरू हो गई थी। एक तरफ 12 हजार अफगान थे और दूसरी तरफ 21 सिख। लड़ाई ने भयानक रूप ले लिया और सिखों ने 1400 अफगानों को मार गिराया। सिखों ने आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ी और किले को बचा लिया।

मरोणोपरांत मिला ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’
सिख चाहते तो मोर्चा छोडक़र वापस आ सकते थे लेकिन उन्होंने भागने से अच्छा दुश्मन का सामना करना उचित समझा और किले को बचाते-बचाते सभी सिख वीरगति को प्राप्त हो गए लेकिन हार नहीं मानी। जब यह खबर यूरोप पहुंची तो पूरी दुनिया स्तब्ध रह गई। ब्रिटेन की संसद में सभी ने खड़े होकर इन 21 सिखों की बहादुरी को सलाम किया। इन सभी सिखों को मरोणोपरांत इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट भी दिया गया जो आज के परमवीर चक्र के बराबर था।

यूरोप में पाठ्यक्रम में शामिल है सारागढ़ी का युद्ध
बता दें कि भले ही हमारे देश में सारागढ़ी के युद्ध के बारे में न पढ़ाया जाता हो लेकिन यूरोप में इस युद्ध के बारे में स्कूलों में आज भी पढ़ाया जाता है। ब्रिटिशों का उन 21 सिखों का ब्रिटिशों के शासन को बचाने में महत्वपूर्ण योगदान है इसलिए बच्चों को इसके बारे में पता होना चाहिए लेकिन इस बात का अफसोस है कि विदेश में तो इसके बारे में पढ़ाया जाता है लेकिन भारतीय आज भी इस य़द्ध से अंजान हैं।

Monday, 21 August 2017

1904: लड़कियों का पहला स्कूल, खूबियां कर देंगी दंग

दिल्ली के सरकारी स्कूलों में आमतौर पर ऐसा देखा जाता है कि बच्चे गर्मियों में तपते कमरों में बैठे हैं। पंखों से गर्म हवा आ रही है और उसके बाद भी किसी तरह उसके नीचे बैठे पढ़ाई कर रहे हैं लेकिन इसके विपरीत एक स्कूल ऐसा भी है जहां बैठने पर न तो गर्मी लगती है और न ही किसी तरह की परेशानी होती है। हम बात कर रहे हैं 1904 में बनाए गए दिल्ली के पहले ऑल गल्र्स स्कूल की जहां विज्ञान का बेहद बढिय़ा नमूना देखा जा सकता है क्योंकि स्कूल को ठंडा रखने के लिए एयर कंडिशनर या किसी ओर चीज का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा बल्कि मटकों के सहारे कमरों को ठंडा रखा जा रहा है। स्कूल का नाम है ‘इंद्रप्रस्थ कन्या उच्चतम माध्यमिक विद्यालय’ जो जामा मस्जिद के पिछे बना है। यह छठी से बाहरवी तक की छात्राओं का है। इस स्कूल की स्थापना 1904 में लाला जुगल किशोर ने की थी। इसमें उनका साथ एक ब्रह्मवादी डॉ. ऐनी बेंसेट ने दिया था। वास्तव में इस स्कूल की स्थापना ऐनी बेंसेट के मन की उपज थी। उस समय महिलाओं की स्थिति दयनीय थी और शिक्षा की तरफ कोई ध्यान तक नहीं देता था। इसे देखते हुए ऐनी बेंसेट और लाला जुगल किशोर सहित कुछ अन्य लोगों ने मिलकर स्कूल की स्थापना की और इसे इंद्रप्रस्थ कन्या शिक्षालय का नाम दिया। धीरे-धीरे समय बदलता गया और स्कूल का नाम भी बदल गया। आज यह स्कूल सहायता प्राप्त स्कूल के रूप में कार्यरत है। साथ ही इस स्कूल को शहरी विरासत पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा यह पहला ऐसा स्कूल था जिसके नाम पर साल 2006 में डाक टिकट जारी किया गया था।

ठंडक के लिए मटकों से ढकी छत
स्कूल की उपप्रधानाचार्य सुनीता शर्मा ने बताया कि स्कूल के कमरों को ठंडा रखने के लिए छत पर घड़े रखे गए हैं और यह आज नहीं बल्कि तक रखे गए थे जब स्कूल की स्थापना की गई थी। इन मटकों की वजह से स्कूल के सभी कमरे ठंडे रहते हैं और बच्चों को पढ़ाई में किसी तरह की परेशानी नहीं होती। इन घड़ों को ऊपर से पूरी तरह ढका गया है जिसकी वजह से यह कमरों में ठंडक देते हैं।

हॉल के नीचे सुरंग भी                                      जान के भले ही हैरानी होगी लेकिन इस स्कूल के हॉल के नीचे एक सुरंग भी थी और ऐसा कहा जाता है कि इसका रास्ता लाल किले जाकर निकलता है। आज इस सुरंग के कुछ हिस्से को स्टोर के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है और बाकी के कुछ हिस्से को बंद कर दिया गया है। साथ ही इस हॉल में आज भी वही नक्काशी है जो 1904 से पहले की गई थी।

राय बालकृष्ण दास ने की थी जमीन दान 
इस स्कूल की स्थापना भले ही ऐनी बेंसेट और लाला जुगल किशोर ने की थी लेकिन स्थापना के लिए राय बालकृष्ण दास ने जमीन दान में दी थी। वह शहर के धनी लोगों में से एक थे। उस समय स्कूल की पहली प्रिंसिपल विदेशी महिला लियोनोरा जीमीनर बनी थी। शुरूआत में यहां शिक्षा के लिए मात्र 5 से 6 महिलाएं आया करती थी लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या में इजाफा होता गया।

देश के नामी लोग आ चुके हैं यहां
इस स्कूल को देखने के लिए रबींद्रनाथ टैगोर, लाल बहादुर शास्त्री, सरोजिनी नायडू, अरूणा आसफ अली और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे विशेष लोग पधार चुके हैं। साथ ही इंद्रप्रस्थ स्कूल के लिए रबींद्रनाथ टैगोर ने कहा था कि ‘स्कूल का दौरा मेरे लिए विशेष महत्व रखता है क्योंकि यहां केवल पढ़ाया नहीं जाता बल्कि जीवन के विचारों को उच्च-शुद्ध रखने व आत्मा को परमात्मा से जोडऩे का सलीखा सिखाया जाता है।’

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      स्कूल की वर्तमान स्थिति

अगर स्कूल की वर्तमान स्थिति की बात करें तो आज भी स्कूल को विरासत की तरह संभाल कर रखा गया है। स्कूल छठी से बाहरवीं कक्षा तक की छात्राओं का है। स्कूल में कुल 35 कमरें हैं जो काफी बड़ी जगह में हैं। इसके अलावा स्कूल में उस समय का एक कुआं भी है जिसका इस्तेमाल आज भी किया जाता है। इसके साथ ही बच्चों को पीने के लिए स्वच्छ आरओ का पानी दिया जाता है।



Wednesday, 9 August 2017

मैं लोगों के राज नहीं खुलवाना चाहती: नेहा धूपिया






रण जौहर के सिलेब्रिटी चैट शो कॉफी विद करण की ही तरह नेहा धूपिया का बॉलिवुड पॉडकास्ट शो ‘नो फिल्टर नेहा’  का पहला सीजन भी काफी चर्चा में रहा। इस शो में भी अक्सर स्टार्स के कुछ ऐसे राज खुलकर सामने आते हैं जिन्हें शायद हम नहीं जानते थे। नो फिल्टर नेहा के पहले सीजन की कामयाबी के बाद नेहा अपने पॉडकास्ट का दूसरा सीजन लेकर आ रही हैं। अपनी इस सेंकड पारी को लेकर उत्साहित नेहा कहती है कि किसी भी टॉक शो में गेस्ट और उस शो का फॉर्मट बहुत अहम होता है। साथ ही दर्शकों के बिना अधुरा ही रहता है। नेहा बताती है कि यह लोगों का प्यार ही है कि हम इस शो का दूसरा सीजन शुरू कर रहें है। जब नेहा से इस बार के सीजन की खासियत के बारें में पूछा गया तो नेहा ने बताया ​कि इस शो में आपको पूरी छूट दी जाती है कि आप अपने दिमागी विचार अच्छी तरह से रख सकें। हमारा मकसद किसी की पर्सनल लाइफ के बारे में जानना नहीं है। हम सिर्फ उन चीजों के बारे में स्टार्स से पूछते हैं जो उन्हें किसी तरह की परेशानी या सोच में न डाले। नो फिल्टर नेहा के दूसरे सीजन के बारे में बात करने के लिए नेहा धूपिया पंजाब केसरी के कार्यालय पहुंची और नए सीजन को लेकर काफी सारी बातें की।

अरविंद केजरीवाल को बुलाना चाहती हैं शो पर
नेहा धूपिया कहती हैं कि वह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अपने शो में बुलाना चाहती हैं। नेहा ने कहा कि हमारा शो आम आदमी का शो है और हम चाहते हैं कि हर आदमी हमारे शो से जुड़े। अरविंद केजरीवाल आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए हमारी कोशिश रहेगी उन्हें अपने शो पर बुलाने की।

वन टेक में होता है शूट                                                            नेहा से जब पूछा गया कि इस पॉडकास्ट शो में भी फिल्मों की तरह रिटेक किए जाते हैं तो नेहा कहती है कि इसमें कोई रिटेक  नहीं होता। स्टार्स जो कुछ भी कहता हैं वह सब कुछ रिकॉर्ड होता है। इसी लिए जब भी कोई स्टार्स शो पर आता है तो वह उन बातों से परहेज करता है जिन्हें वह सार्वजनिक नहीं करना चाहते।

अभिनेताओं के अलावा दूसरे क्षेत्र के लोगों को भी न्यौता
नो फिल्टर नेहा के दूसरे सीजन में अभिनेताओं के अलावा खेल जगत, म्यूजिक, फिल्म निर्देशन जैसे क्षेत्रों से भी स्टार्स को बुलाया जायेगा। पहले सीजन में खेल जगह से युवराज सिंह को बुलाया था और इस बार सानिया मिर्जा जैसी स्टार्स हमारे शो का हिस्सा है। इसके अलावा म्यूजिक जगत से सोनू निगम के न्यौता दिया गया। 

Monday, 31 July 2017

नेताजी बोस और आजाद हिंद फौज के इर्द-गिर्द घूमती है ‘राग देश’










पान सिंह तोमर, साहेब,बीवी और गैंगस्टर जैसी दमदार फिल्मों के जरिए बॉलीवुड में लोहा मनवाने वाले डायरेक्टर, एक्टर और राइटर तिग्मांशु धूलिया अब अपनी नई फिल्म ‘राग देश’ के साथ सिनेमाघरों में दस्तक देने आ रहे हैं। राग देश नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा बनाई आजाद हिंद फौज पर आधारित है जिसमें सिनेमा जगत के मशहूर अभिनेता कुणाल कपूर, मोहित मारवाह और अमित साध मुख्य भूमिका में है। इस फिल्म की कहानी दूसरे विश्व युद्ध के दौरान आजाद हिंद फौज और ब्रिटिश आर्मी के बीच हुई लड़ाई के इर्द-गिर्द घूमती है जिसमें हिंद फौज की हार हुई। ब्रिटिश आर्मी ने जीत के बाद आजाद हिंद फौज के लोगों पर कोर्ट मार्शल किया और आरोप लगाया कि इन्होंने देश के साथ गद्दारी की है। शाहनवाज खान, गुरबक्श सिंह ढिल्लों और प्रेम सहगल पर अंग्रजों ने लाल किले पर कोर्ट मार्शल किया। अपनी इस फिल्म के बारे में बात करने के लिए तिग्माशुं धुलिया, कुणाल कपूर और मोहित मारवाह पंजाब केसरी के कार्यालय पहुंचे जहां उन्होंने फिल्म से जुड़े कई मजेदार और दिलचस्प किस्सों के बारे में बात की।

चैलेंजिंग था यह रोल:कुणाल कपूर

फिल्म में शाहनवाज खान का रोल निभा रहे कुणाल कपूर का कहना है कि शाहनवाज का रोल निभाना काफी चैलेंजिंग था। वह बताते हैं कि उन्होंने शाहनवाज खान ऑटोबायोग्राफी पढ़ी, उनसे जुड़े लोगों से उनके बारे में बात की और खान के बारे में जानने की कोशिश की। इसके लिए मैं शाहनवाज के पौत्र से भी मिला और उनकी कुछ तस्वीरें ली। इस रोल को निभाने के लिए सबसे बड़ी बात थी उस समय की मानसिकता को समझना। उस समय लोग ऐसे थे जो देश के बारे में सबसे पहले सोचते थे और शाहनवाज भी उनमें से ही एक थे।






इस रोल के लिए छोड़ दी सारी आदतें:मोहित मारवाह

मोहित मारवाह इस फिल्म में प्रेम सहगल का किरदार निभा रहे हैं। वह बताते हैं कि जब इस किरदार के बारे में उन्होंने तिग्माशुं धुलिया से बात की तो उन्होंने कहा कि अगर इस रोल को बेहतर तरीके से निभाना चाहते हो तो अपनी सारी बुरी आदतें छोड़ दो। जैसे देर रात बाहर जाना, पार्टी करना आदि। तिग्मांशु के कहने पर यह सारी चीजें छोड़ दी और सिर्फ उन्हीं लोगों के साथ रहा जो इस फिल्म और प्रेम सहगल से जुड़े थे। इसके अलावा मैं जो फिल्में भी देखता था वह भी द्वितीय विश्वयुद्ध से जुड़ी देखता था ताकि उस माहौल के बारे में जान सकूं।

कहां गया ऐ गालिब




                                       न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,
                                       डबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!
कुछ ऐसा था गालिब का अंदाज ए बयां। शेर-ओ-शायरी के रसिया मिजऱ्ा असदुल्लाह खा़ गा़लिब जिन्हें प्यार से मिजऱ्ा नौशा या मिजऱ्ा गालिब के नाम से भी जाना जाता था,महान शायर तो थे ही साथ ही बेहतरीन मिजाज के भी व्यक्ति थे। उनकी शायरी का संग्रह इतना विशाल है कि यदि खंगालना शुरू करें तो शायद खत्म ही न हो। कहते हैं कि एक व्यक्ति में शायर बनने के लिए गम,सुख,दुख और परिस्थितियों का भाव  बेहद मायने रखता है और यह सब गालिब को तोहफे में मिला, तब जाकर मिर्जा गालिब बनें। उनकी पत्नी उमराव बेगम से उन्हें सात बच्चे हुुए लेकिन दुर्भाग्य से कोई भी जीवित नही रह सका जिसका उन्हें बेहद सदमा लगा। आज सभी लोग गालिब का नाम तो जानते हैं लेकिन गालिब के बारे में जानकर भी अंजान हैं। लोग तो शायद इस बात से भी अंजान है कि आज भी राजधानी में गालिब की हवेली को उनकी कुछ यादों के साथ संजो कर रखा गया है। 27 दिसंबर 1797 में आगरा (अकबराबाद) में जन्में गालिब बचपन से ही मोमिन,मीर और जौक से प्रभावित रहे थे। चांदनी चौक के बल्लीमारान में मीर कासिम जान गली में बनी गालिब की हवेली बेशक समय के साथ-साथ छोटी होती जा रही है लेकिन इसमें गालिब के उन साक्ष्यों को संभाल कर रखा गया है जो उनके जीवन के उतार-चढ़ाव को बयां करते हैं। 500 गज में बनी यह हवेली आज केवल 140 गज में ही सिमट कर रह गई है। चूंकि गालिब को बड़ा स्वाभिमान था और वह अपने आप में आत्मविश्वास रखते थे इसलिए उन्होंने अपने बारे में लिखा कि बेशक दुनिया में बहुत से कवि-शायर हैं, लेकिन उनका लहजा सबसे निराला है:              
                                  ‘‘हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे
                                कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए-बयां और’’

बादशाह भी रहे शागिर्द
अपने जीवनकाल के दौरान गालिब ने अनेक जगहों की यात्रा की और कई शागिर्द बनाए। गालिब घुमक्कड़ किस्म के थे और उन्होंने अपनी यात्रा में कई स्थान देखे। फिरोजपुर, झिरका, भरतपुर, लखनऊ, कानपुर, इलाहबाद, बनारस, पटना, मर्शिदाबाद और कलकत्ता जैसी कई जगहों का वह दौरा कर चुके थे। इसी बीच उन्होंने बड़े-बड़े बादशाहों को भी अपना शागिर्द बनाया। इसमें बहादुरशाह जफर, अल्ताफ हुसैन हाली, मिर्जा दाग देहलवी, नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता और मुंशी हरगोपाल तुफ्ता जैसे लोग उनके शागिर्द के रूप में शामिल हैं।

रो पड़े थे गालिब
Ghalib Ki Haveli At Chandni Chowk.

मिर्जा गालिब ने अपनी आखों से 1857 के युद्ध का वो मंजर देखा था जिसमें कई लोगों ने अपनी जान गवां दी थी। मई-जून का महीना था और दिल्ली वालों के पास पीने के लिए पानी नहीं था। गलियों में सिपाही तलवारें लेकर गश्त करते रहते थे। 134 दिन तक चली इस लड़ाई में लोगों को अपने घरों में कैद होकर रहना पड़ा और कई-कई दिनों तक उन्हें खाना नसीब नही होता था। गालिब ने इन दिनों को अपनी डायरी में कैद किया और इसे दखतंबू का नाम दिया। इस दौरान गालिब के दोस्त और बादशाह बहादुर शाह जफर का भी पतन हो गया था। जब उन्हें लाल किले में बुलाया तो वहां जफर की बजाय कोई गौरी मेम बैठी उनसे सवाल-जवाब कर रही थी। इस सब को देख गालिब बेहद दुखी हुए और रोने लगे।

उमराव बेगम से नोंक-झोंक
गालिब की अपनी पत्नी उमराव बेगम से यह शिकायत रहती है कि वह उनकी शायरी को नहीं समझती। इस बात को लेकर दोनों में नोंक-झोंक होती रहती थी। उमराव बेगम इलाही बख्श मारूफ की पुत्री थी और बल्लीमारान में एक हवेली में उनका निवास था। यह हवेली अब कासिमजान गली में राबिया गल्र्स स्कूल के नाम से चल रही है। जिस समय उनका विवाह मिर्जा गालिब से हुआ उस वक्त वह लगभग बारह वर्ष की और मिर्जा साहब तेरह वर्ष के थे। वैसे तो उमराव बेगम एक निष्ठावान और वफादार पत्नी थी और गालिब का ध्यान भी रखती थी लेकिन उन्हें गालिब की शायरी पसंद नही थी। इनके सात बच्चे हुए लेकिन दुर्भाग्य से कोई भी जीवित न रह सका।

आज भी शायरी बयां करती दीवारें

मिर्जा गालिब की यादें बेशक समय के साथ-साथ धुंधली होती जा रही हैं लेकिन आज भी इनकी हवेली की दीवारे उनकी शायरी को बयां करती हैं। गालिब की हवेली में गालिब की लिखी कई शायरी और नजमें दीवारों पर लिखी गई हैं। न जाने इस हवेली में ऐसा क्या है कि यहां आकर माहौल शायराना हो जाता है। इतना ही नहीं इस हवेली में गालिब और उमराव के कपड़ो केे नमूने, उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तनों के नमूने मौजूद हैं। साथ ही उनका मनपसंद खाना और उनकी आदतों के बारे में भी लिखा गया है। यह सब देख एहसास होता है कि शायर बनना या शायरी कहना कोई बच्चों का खेल नही। 

Sunday, 30 July 2017

तवायफों की जिंदगी के अनछुए पहलुओं को बयां करते चावड़ी बाजार के बंद ‘कोठे’


वायफ...एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही हमारे दिल और दिमाग में एक ऐसी महिला की तस्वीर बन जाती है जो पैरों में घूंघरू बांध, हाथों में कंगन पहन अपने दरवाजे पर आने वाले लोगों का मनोरंजन करती है लेकिन अगर इनकी असल जिंदगी के बारे में जानने की कोशिश की जाए तो वह हमारी सोच से काफी अलग है। मुगलकाल और ब्रिटिश सरकार के दौरान चावड़ी बाजार में बने तवायफों के घरों को ‘कोठा’ शब्द से पुकार जाता था। इन घरों का आकार थोड़ा बड़ा होता था जिसके चलते इन्हें कोठा कहा जाता था लेकिन अगर आज किसी के सामने यह शब्द बोला जाए तो उसकी सोच सीधे वैश्या पर जाकर रूकती है। उस दौरान घरों के आकार के हिसाब से नाम दिया जाता था। बड़ा घर तो कोठा, उससे थोड़ा छोटा तो कोठी और सबसे छोटे घर को कोठरिया कहा जाता था परंतु कोठा तवायफों की पहचान बन गया था। उस समय चावड़ी बाजार कोठों के लिए जाना जाता था। इसकी जानकारी एक वॉक के जरिए गो इन द सिटी के गौरव और अदिति भाटिया ने दी।

फोटो :  श्रीकांत सिंह

बंद कोठे बयां करते हैं हकीकत


चावड़ी बाजार में आज भी कुछ मकान ऐसे हैं जिन्हें पुराने वक्त में कोठा कहा जाता था। चावड़ी बाजार मेट्रो स्टेशन से चावड़ी बाजार जाते वक्त पहला कोठा पड़ता है जो इस बात को बयां करता है कि उस वक्त इन घरों में रहने वाली महिलाओं की क्या स्थिति थी। बेशक उन्हें तवायफ कहा जाता था लेकिन उनकी वफादारी किसी सबूत का मोहताज नहीं थी। जब कोई नवाब इन कोठों पर आया करता था तो वह शराब या किसी अन्य नशे की बजाय पान खाता था जिसमें अफीम मिलाई जाती थी। इससे थोड़ा आगे चलने पर एक और कोठा बना है जो काफी बड़ा है।


तवायफों के लिए बनाई गई अलग मस्जिद


इन कोठों के साथ ही वहां रहने वाली तवायफों के लिए एक अलग मस्जिद बनाई गई थी जिसे ‘रुकनूदोला’ की मस्जिद कहा जाता था। इस मस्जिद में सिर्फ और सिर्फ तवायफें ही सजदा करने आया करती थी। चावड़ी बाजार में बनी यह मस्जिद आज भी उतनी ही चमकदार है जितनी उस समय में हुआ करती थी। रुकनूदोला की मस्जिद की दीवान वहां बने कोठे के बराबर हुआ करती थी। आज भले ही मस्जिद के नीचे दुकानों की वजह से रास्ता तंग हो गया हो लेकिन इसकी खूबसूरती आज भी बरकरार है।


चार वर्गों में बंटी थी यह महिलाएं


मुगलकानी समय में इन महिलाओं को चार वर्गों में बांटा गया था। सबसे पहले वर्ग की महिलाओं के लिए रखैल शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। इनके साथ नवाब अपनी मर्जी से जितना समय चाहें उतना समय रह सकते थे। साथ ही इनके आसपास नवाब के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं आता था। इूसरे वर्ग की महिलाएं तवायफ कहलाती थी जिनका काम था कथक के जरिए उनके दर पर आने वाले लोगों का मनोरंजन करना। तीसरे वर्ग की महिलाओं को दोमनी कहा जाता था जो सिर्फ मुजरा करती थीं और लोगों का मनोरंजन करती थी। इस कड़ी में आखिरी वर्ग था बेड़मी महिलाओं का जिसके साथ कोई भी व्यक्ति पैसों के दम पर शारीरिक संबंध बना सकता था।


मर्द भी हुआ करते थे तवायफ

सुनकर भले ही अजीब लग रहा होगा लेकिन यह हकीकत है कि उस समय मर्द भी तवायफ का काम करते थे। गौरव बताते हैं कि जब नवाब कई-कई दिनों तक इन तवायफों के पास रहा करते थे तो उस समय उनकी महिलाएं घरों में अकेली रहा करती थी और मनोरंजन का कोई साधन नहीं था। इतिहास के पन्ने इस बात का गवाह हैं कि वह महिलाएं अपने मनोरंजन के लिए मर्द तवायफों को बुलाया करती थी। वह भी अपने पैरों में घूंघरू बांधकर नृत्य करते थे और बेगमों का मनोरंजन करते थे।


तवायफों की वफादारी का सबूत है ‘राणादिल’

राणादिल उस समय की सबसे खूबसूरत तवायफों में से एक थी जो अपने नृत्य के जरिए किसी को भी अपने तरफ आकर्षिक कर लेती थी। इस दौरान औरंगजेब के भाई दाराशिकोह को राणादिल से मोहब्बत हो गई थी। राणादिल और दाराशिकोह एक-दूसरे को चाहने लगे और दोनों की शादी हो गई। इसके बाद दाराशिकोह की मृत्यु हो गई और औरंगजेब ने राणादिल को संदेश भेजा की आप बेहद खूबसूरत है और मैं आपको अपने शाही घर में रखना चाहता हूं। इस पर राणादिल ने अपने सिर के बाल काटकर औरंगजेब को भेज दिया। इतने पर भी औरंगजेब नहीं माना और उसने दोबारा संदेश भेजकर उसके चेहरे की तारीफ की और फिर से शाही घर में रहने का न्यौता दिया। दाराशिकोह के प्रति अपनी वफादारी दिखाते हुए राणादिल ने अपने पूरे चेहरे पर चाकू मार लिए और चेहरे से निकले खून और मास के कुछ हिस्से औरंगजेब को भेज दिए। इस पर औरंगजेब भी हैरान हो गया और राणादिल की इज्जत करने लगा।

गुरुद्वारा पंजा साहिब: जहां गुरु नानक देव जी ने पंजे से रोक दी थी चट्टान

पाकिस्तान स्थित गुरुद्वारा पंजा साहिब सिख समुदाय के तीर्थ स्थल देश में ही नहीं, विदेश में भी हैं. यहां जो गुरुद्वारे हैं, उनसे गुरु...